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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 76

ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता जा रहा था , शर्मिष्ठा की धड़कनें बढ़ने लगीं थी । उसकी बेचैनी बढने लगी थी । उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था । महाराज और महारानी को गये हुए बहुत समय हो गया था किन्तु वे अभी तक लौटकर नहीं आये थे । "तो क्या आचार्य बहुत अधिक व्यथित हैं ? ऐसा क्या किया है मैंने ? झगड़ा देवयानी ने प्रारंभ किया था । मैंने तो उसे समाप्त किया था । आचार्य को तो मुझे झगड़ा समाप्त कराने के लिए बधाई देनी चाहिए किन्तु वे तो स्त्रियों की तरह कोपभवन में जाकर बैठ गये । उनके लिए तो हम दोनों सखियां बराबर होनी चाहिए" । शर्मिष्ठा बैठी बैठी सोचने लगी ।

"इतना विलंब होने के पीछे क्या कारण हो सकता है ? देवयानी ही कारण होगी और तो क्या बात हो सकती है ? वह अपनी शिकायतों का पिटारा खोलकर बैठ गई होगी । आज पीछे से चुगली करने का मौका मिल गया है ना उसे । लग रही होगी तीन तेरह करने में । उसकी तो आदत भी ऐसी ही है । हमेशा पीठ पीछे बुराई करती है देवयानी । और सामने तो ऐसे "कसीदे" काढ़ती है कि आदमी उसका प्रशंसक बन जाता है और कहता फिरता है "देवयानी कितनी अच्छी लड़की है । कितनी मीठी मीठी बातें करती है । सबका कितना सम्मान करती है । सबका कितना ध्यान रखती है । देवयानी जैसी कोई नहीं है" ।

पर उन लोगों को ये ज्ञात नहीं है कि उनके पीछे से उनकी कितनी बुराइयां करती है ये । पुरुषों को शैतान और स्त्रियों को राक्षसी कहती है देवयानी । पर मुझे क्या ? जब लोगों को पता चलेगा तब वे इसका असली रूप देखेंगे" । शर्मिष्ठा सिर झटक कर खड़ी हो गई और दालान में टहलने लगी ।

टहलते टहलते उसे ध्यान आया कि कहीं देवयानी उनकी आपस की बातों को तो नहीं बता देगी ? यदि ऐसा हुआ तो ? वह तो लाज से मर ही जायेगी ? तब शर्मिष्ठा को याद आया कि एक दिन उसकी सखि सुहासिनी ययाति का चित्र लेकर उसे चिढा रही थी और बार बार कह रही थी "इसे फाड़ दूं" ? मैं सुहासिनी के पीछे पीछे दौड़ रही थी कि अचानक से देवयानी आ गई । उसने सुहासिनी के हाथ में महाराज का चित्र देखा तो वह झट से पूछ बैठी "कौन है यह बांका नवयुवक ? देखने में कितना सुन्दर है यह ! चेहरे से तो कोई राजकुमार लग रहा है । तेरा प्रेमी है क्या सुहासिनी" ?

उसकी बातों पर सुहासिनी बहुत जोर से हंसी । देवयानी की बात पर यदि कोई सखि हंस देती थी तो देवयानी का मुंह सूज जाता था । वह बहुत शीघ्र आवेश में आ जाती है । सुहासिनी को हंसते देखकर वह क्रोधित ही गई और कहने लगी "मैंने कुछ गलत कहा था क्या ? क्या वह तेरे मन का मीत नहीं है ? यदि नहीं है तो इस तरह उस चित्र को लिए लिए क्यों दौड़ लगा रही है ? और इस तरह 'खी खी' करके क्यों हंस रही है तू" ? देवयानी सुहासिनी को डांटने लगी थी । देवयानी की बात पर सुहासिनी और जोर से हंसने लगी । वह हंसते हंसते बोली "आप तो इतनी बुद्धिमान हैं आचार्य पुत्री कि आंख के इशारे से ही किसी का भेद ले लेती हैं । किन्तु यहां आप देखकर भी अनदेखा कर रही हैं । ये श्रीमान "मन के मीत तो हैं" । सुहासिनी राज को और गहरा बनान के लिए थोड़ी देर के लिए शांत हो गई । पर देवयानी को चैन कहां ? बड़ी जल्दी लग रही थी उसे उस युवक के बारे में जानने की । जब सुहासिनी कुछ नहीं बोली तो देवयानी लपक कर बोली "देखो, मैं सच सच कह रही हूं । यदि तुम लोग ऐसे ही ठिठोली करती रही और मुझे नहीं बताया तो मैं इसे लेकर मैं आसमान में उड़ जाऊंगी । फिर तुम दोनों देखती रह जाना" देवयानी ने सुहासिनी के गले में अपनी बांहें डालकर उसका मुंह अपनी ओर करते हुए कहा ।

सुहासिनी भी कोई कम नहीं थी । उसने भी सीधा देवयानी के नयनों में झांका और शरारत से बोली "आपका ज्ञान अधूरा है सखि ! ये महाशय मनमीत तो अवश्य हैं पर मेरे नहीं हैं । फिर किसके हैं , ये मैं नहीं बताऊंगी । आप स्वयं अंदाज लगा लीजिए" । सुहासिनी की ठिठोली चालू थी ।

अब देवयानी ने शर्मिष्ठा की ओर देखा । शर्मिष्ठा के गाल लाज के मारे लाल हो गये थे । आंखें शर्म से झुक गई थीं । उसने अपनी गर्दन झुका रखी थी और आंचल को अपनी उंगली पर लेपटेने का कार्य कर रही थी । शर्मिष्ठा की हालत देखकर देवयानी उसके नजदीक आई और उसकी चिबुक पकड़कर ऊपर उठाते हुए कहने लगी "ओह ! तो ये बात है ! राजकुमारी जी के मनमीत हैं ये ? तभी इनके गाल शर्म से लाल सुर्ख हो गये हैं । अधर गुलाब के पुष्प से खिल गये हैं और रोम रोम से प्रेम वर्षा होने लगी है । कबसे चल रहा है यह लुकाछिपी का खेल" ? देवयानी ने शर्मिष्ठा की आंखों में झांकते हुए कहा ।

शर्मिष्ठा शर्म के मारे हाथ छुड़ाकर भाग गई और एक कोने में जाकर बैठ गई । देवयानी ने सुहासिनी से पूछा "ये महाशय आखिर कौन हैं जिन्हें हमारी प्यारी सखी अपने मन मंदिर में बैठाकर पूजा करने लगी है । संभवत: इसीलिए आजकल हमसे बातें नहीं करती है ये । क्यों सखि ? यही बात है ना" ? देवयानी शर्मिष्ठा के कान उमेठते हुए बोली ।

शर्मिष्ठा को छेड़ते हुए सुहासिनी कहने लगी "आचार्य पुत्री, आजकल तो राजकुमारी फूलों को बहुत चूमने लगीं हैं । शायद ये फूलों को सम्राट के ओष्ठ समझती हों" ? सुहासिनी की बातों में रस ही रस था । उसकी बात सुनकर शर्मिष्ठा उसके पीछे मुक्का तानकर दौड़ते हुए बोली "शैतान कहीं की ! आज तुझे नहीं छोडूंगी" । सुहासिनी देवयानी के पीछे छुपकर खड़ी हो गई । देवयानी ने सम्राट शब्द सुना तो उसके कान खड़े हो गये । "कौन सम्राट" ? "राजकुमारी जी का मन चुराने वाले एक ही तो सम्राट हैं और वे हैं सम्राट ययाति । वो ही बसे हैं इनके मन में" । ययाति की बात सुनकर देवयानी चुप हो गई ।

शर्मिष्ठा को वे सब बातें याद आ गईं । पूरा एक साल हो गया है उन बातों को पर कल की ही तो बात लगती है । कहीं देवयानी ने क्रोध और ईर्ष्या में भरकर माता को सम्राट ययाति के बारे में तो नहीं बता दिया ? यदि बता दिया होगा तो मैं क्या करूंगी ? माते मेरे बारे में क्या सोचेंगी" ?

इसी उधेड़बुन में शर्मिष्ठा उलझी हुई थी कि अचानक एक सेविका दौड़ती हुई आई और कहने लगी "महाराज और महारानी जी आ गये हैं । वे सीधा अपने कक्ष में जायेंगे । उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं बताया है वैद्य जी ने । वे थोड़ा आराम करेंगे" ।

शर्मिष्ठा ने ये सब सुना और सोचने लगी कि यहां से तो दोनों सकुशल गये थे किन्तु वापिस व्याधि में आये हैं । इसका अर्थ है कि उन्हें गहरा आघात लगा है । वह मन ही मन भोलेनाथ का नाम जपने लगी ।

श्री हरि 21.8.23

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